मित्रों , आदाब ,
इस ब्लॉग पर आपको भारत की गंगा जमनी तहज़ीब की बहुत सी झाँकियाँ नज़र आएगी ,हम यहाँ भारतीय भाषाओं के साहित्य से कुछ नायाब रचनाएं पेश करेंगे , तो लीजिए पहली रचना है उर्दू अदब से एक ऐसे लेखक से मनसूब कथा जिन से बहुतकम लोग वाकिफ हैं। इनका नाम है दीनानाथ गांधी और यह कहानी 1955 में किसी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
दोला दरिया
(उर्दू कहानी, १९५५ )
(लेखक दीनानाथ गांधी)
भगत लोग मैली कुचेली गाढ़े की धोतियां बांधे, तिलक लगाए, कानों की मुरकियाँ हिलाते, धुआं उड़ाते पुल से गुजरते और धीरे धीरे पथरेली ढलानों से लुढ़कते, लड़खड़ाते, गिरते-पड़ते दरिया के तट पर जाकर विराजमान हो जाते। यहां पहुंचकर वे ढोलक बजाते, नाचते, खड़क करताल उठते और मिली-जुली भारी और खरखरी तेज़ मगर बेसुरी सी आवाज़ में गाने लगते ।
दोला दरिया ओ भाई
दोला दरिया
बेड़ा कंडे चाला
ओ भाई दोला दरिया
ओ भाई…..
भजन कीर्तन से मुक्त होकर वे एक दूसरे को बधाइयां देते। इसके पश्चात गूँधे आटे से बनाए हुए छोटे छोटे पुतलों में घी और रूई की बत्ती रखकर जोत जलाते और उन्हें पत्तों के दोनों में रखकर दरिया की लहरों के हवाले कर देते । और फिर दोबारा ढोल और करतालें संभालकर झूमने लगते और पूरी आस्था के साथ भजन स्वरूप वही गीत ज़ोर ज़ोर से गाने लगते ।
दोला दरिया ओ भाई
दोला दरिया
बेड़ा कंडे चाला
ओ भाई दोला दरिया
दोला दरिया, ओ भाई
दोला दरिया…..
देर रात गए जब वे वापस लौटते तो मैं मखौल उड़ाते हुए पूछता, “क्यों भाई, दरिया को ठग आए ?”
टोली का सबसे बड़ा भगत जवाब देता, “थोड़े कीर्तन से प्रसन्न हो जाता है, और अपनी भयानक लहरों को अपने भीतर ही समेट लेता है, आप भोले बादशाह की तरह किनारे-किनारे ही बहता रहता है, भला सोचो तो, "अगर दरिया बादशाह नाराज़ हो जाए तो क्या हो... प्रलव आ जाएगी प्रलव, ये बस्तियां बह जाएगी , पता है मुल्तान नगरी गर्क हो जाएगी", दूसरा भगत कानों की मुरतियां हिलाते हुए कहता , "हरे राम ! हरे राम! भगवान सबके झुग्गे साबित रखे " फिर स्वयं ही विषय बदलकर मुझसे पूछते,
"अरे हां साहब, ग्वाल-बाल तो आनंद में है ना ?
"शुक्र है अल्लाह पाक का।" मैं जवाब देता।
अच्छा फूलों-फलो, मियां वाहिद बख्श को हम सबका सलाम कह देना। और फिर , आधा मील लंबा पुल पार कर वे आंखों से ओझल हो जाते।
हर रविवार को भक्तों की कई मंडलियां पुल से गुजरती, दरिया के किनारे जोत जगाते, वापसी पर, मेरे ग्वाल-बाल की खैर खैरियत पूछती जाती और मियां वाहिद बख्श के नाम सलाम छोड़ जाती।
मियां वाहिद बख्श मेरे पिता हैं, उनकी उम्र 'दरिया ए चिनाब' के पुल की चौकीदारी में ही बीती है । मैं भी यहीं, दरिया के किनारे ही पला बड़ा, करीब गांव की मस्जिद में मौलवी एहसानुल्लाह से मैंने अरबी पढ़ी और कुरान शरीफ की तिलावत सीखी और फिर उन्हीं की सिफारिश से मुल्तान शहर के एक उच्च स्कूल में प्रवेश मिल गया। एंट्रेंस पास करते ही अल्लाह के फ़ज़ल से मिलिट्री में भर्ती हो गया ।
लड़ाई में तो ना जा सका लेकिन लड़ाई के पश्चात एक विचित्र से युद्ध का नज़ारा देखने को ज़रूर मिला। जिसकी मैंने कोई अपेक्षा नहीं की थी।
हुआ यूं कि पहले देवता और खुदा आपस में लड़ पड़े , मंदिर मस्जिदों से और मस्जिद मंदिरों से टकराए। 'प्रह्लाद पूरी' औैर 'शाह शम्स' का मज़ार अलग अलग हो गए। पुजारियों और मसीहाओं में तू-तू मैं-मैं होने लगी, उनकी देखा देखी चेलो और मुरीदो में ठन गई, लाठियां लेकर वे एक दूसरे पर पिल पड़े। हर-हर महादेव और अल्लाह हू अकबर के गगनचुंबी नारों से माहौल गरमा गया। और देखते ही देखते ज़मीन पर खून की नदियां बह निकली।
कुरान शरीफ और वेदों के ऐसे-ऐसे फरमान ढूंढ कर निकाले गए, जिनकी दलीलेें देकर बेगुनाह का खून बहाना पुण्य का काम हो गया। जन्नत और स्वर्ग के दरवाजे़ हर कातिल के लिए खुल गए। चोरों और लुटेरों की तिजारत चमकी, हज़ारों घर तबाह हो गए, वीरान घरों से विधवाओं और अनाथ बच्चों के मातम की दर्द भरी कराहें बुलंद होने लगी। लाशें नालियों में सढ़ने लगी । कत्ल व हिंसा के इस तूफान में अखबार धड़ाधड़ बिकने लगे। मुल्तान के आसपास की बस्तियों से हिंदू भागकर शहर की गलियों में आ छिपे । सहमे हुए मासूम देहाती जो अखबार भी नहीं पढ़ सकते थे। जब उनसे पूछा गया कि तुम्हें किसने मारा ?
वे कहते, "भाई ने"
तुमने किसको मारा?
थरथरातेते हुए होठों से वे कहते,
"भाई को "
फिर आग लगी, धुआं उठा। चारों तरफ से आवाजें आई ,कमज़ोर आवाजें, दुखी आवाजें रो-रोकर गिड़गिड़ाती दर्द भरी आवाजें। इंसानों की आवाजें।
हम हार गए,
हमारे देवता हार गए
, हमारे मंदिर हार गए, हमें ऐसी जगह भेज दो जहां ना मुल्ला की अज़ान सुनाई दे, जहां खानकाहें ना हो जहां 'शाह शम्स' का मज़ार ना हो।
इन्हें गाड़ियों और ट्रकों में लादकर, पैदल काफलों की सूरत में, मिलिट्री की मदद से हिंदुस्तान भेज दिया गया। मगर मामला यहीं खत्म नहीं हुआ। लाखों मुसलमान भी हिंदुस्तान से भागकर पाकिस्तान आ गए और आते ही उन्होंने पूछा, यहां कोई मंदिर तो नहीं, गुरुद्वारा तो नहीं अगर है तो हम यहां नहीं रह सकते, हमारे खुदा की शिकस्त हुईं है। हमारी मस्जिदों की हार हुई है, हम पराजित लोग हैं।
देखते ही देखते शहर के आसपास जितनी खाली जगह थी वहां झोंपड़े बना दिए गए।
इधर शरणार्थियों का उमड़ता हुआ सैलाब दरिया ए चिनाब को छूने लगा । आबादी के इस बेतुके फैलाव ने सरकार के सामने एक समस्या को खड़ा कर दिया। शरणार्थियों के इस रेले में, कौन जाने कितने जासूस और तोड़फोड़ करने वाले गद्दार भी शामिल होंगे जो अवसर मिलते ही पुल को बारूद से उड़ा देंगे। इसीलिए पिताजी के साथ मुझे भी पुल की देखभाल पर नामज़द कर दिया गया ।
अब दरिया के किनारे एक नई दुनिया आबाद हो गई थी। देखते ही देखते इस बियाबान में जीवन की चहल-पहल शुरू हो गई। कहीं बंजर ज़मीन पर हल चल रहे हैं, कहीं लोग खुराक के लिए मछलियां पकड़ रहे हैं, कहीं नाव पर लाद कर इस किनारे का माल उस किनारे पर ले जाया जा रहा है।
यह उखड़े हुए, बेवतन लोग इस अजनबी माहौल से समझौता कर रहे थे । समय के साथ-साथ सारे दुख और सारे गम गर्द की तरह बैठते चले गए, उनके दिलों में जिंदा रहने का एहसास उभर रहा था, वह इन बियाबानों को स्वर्ग बनाने पर तुल गए थे। छोटी-छोटी दुकानें, छोटे-छोटे मकान और गलियां स्कूल और अस्पताल स्थापित होेने लगे। दरिया के दोनों किनारों पर बस्तियां आबाद हो गई। बीच में दरिया पूरे वेग के साथ बह रहा था। उसकी लहरों में तेजी और तूफान के आसार पैदा हो रहे थे। लेकिन जिंदगी और मौत की कशमकश में उलझे हुए इंसानों को दरिया के बदलते हुए तेवर देखने की फुर्सत कहां थी।
एक रोज़ उच्च अधिकारियों की एक स्पेशल ट्रेन पुल पर आकर रुकी। उसमें से बड़े-बड़े अफसर उतरे। उन्होंने घंटों दरिया के तट पर टहलते हुए लहरों को देखा, पानी की गहराई को नापने वाले मीटर से चेक किया और फिर वापस पुल पर आ गए। कभी अंग्रेज़ी में कभी उर्दू में और कभी इशारों में आपस में बातें करते रहें । हमारी समझ में जो आया वह सिर्फ इतना था कि जल संसाधन मंत्रालय ही इस बात के लिए जिम्मेदार है। बांध बांधना पड़ेगा लेकिन हां इसके लिए पांच लाख बोरी सीमेंट दरकार है । और वित्त मंत्रालय शायद ही इतना फंड अलाट करें फिर भी पुल की सुरक्षा जरूरी है । और वक्त पड़ने पर लोगों को खबरदार करने और आबादी की निकासी का भी बंदोबस्त अभी से हो जाना चाहिए। थोड़ी देर बाद स्पेशल ट्रेन चली गई।
और हम तरह-तरह के विचारों शंकाओं से घिर गए।
गहरी अंधेरी रात मेरी परेशानी को बढ़ा रही थी । एक अनजाना सा खौफ मुझ पर हावी हो रहा था। कुछ इस तरह का एहसास जैसे कोई बड़ी आफत टूटने वाली हो । इसी उहा पोह में , उलझा हुआ, मैं दरिया के किनारे चला जा रहा था कि अचानक किसी के पद चापों की आहट सुनाई दी । मैंने घबराकर पूछा कौन है ? और ज्यों ही मुड़ा, क्या देखता हूं कि अब्बा जान हाथ में लालटेन लिए मेरी तरफ ही चले आ रहे हैं । अब्बा जान ज़रूरत से ज्यादा खामोश और चिंतित नजर आ रहे थे। चुपचाप हम दोनों आधे मील लंबे पुल पर गश्त लगाने लगे। पुल पर से मैंने देखा नीचे दरिया सफेद अझदे की तरह अपने शिकार की तलाश में मुंह फाड़े
सरपट भागे चला जा रहा है। और उसके दोनों किनारों पर आबाद लोग पूरी तरह से निश्चिंत होकर गहरी नींद सो रहे हैं।
अब्बा जान के साथ मैं भी सोच में डूबा हुआ चुपचाप उनके पीछे-पीछे चला जा रहा था। मेरी दिल की बात को समझ कर अचानक ही वे बोल उठे, "कुदरत का खेल है बेटा, मौला के रंग नयारे हैं"।
"मैं आप का मतलब नहीं समझा", मैंने कहा। अब्बा जान ने ठंडी सांस भरी और बोले,
"कुछ दिनों से दरिया के तेवर बदले हुए हैं।" इसकी रवानी में मुझे शरारत नज़र आती है , इसके प्रवाह में एक आक्रोश झलक रहा है। इसकी आवाज़ पिंजरे में कैद शेर की तरह है। जो शिकार को सामने देख पिंजरा तोड़ने के लिए हाथ-पांव मार रहा हो । बोलते बोलते वे अचानक चुप हो गए। लेकिन मेरे दिमाग में खतरे के भयानक साए मंडराने लगे । अचानक सिसकियों की आवाजों ने मेरा ध्यान तोड़ा, "अरे आप रो रहे हैं अब्बा जान" मेरी बात को जैसे उन्होंने सुना ही नहीं ।
रात के अंधेरे को मुखातिब करते हुए वे कहने लगे ।
"दरिया के दोनों किनारों पर छोटी-छोटी फूस की झोंपडियां तिनके की तरह बह जाएगी । लोग दीवाना वार भागेंगे, लेकिन लहरें इन्हेें चारों तरफ से घेर लेंगी, 'या अल्लाह!' अपने बंदों पर रहम कर।
"अब्बा जान घबराने से क्या होगा" मैं ने तसल्ली देते हुए कहा
"फिर यह भी तो हो सकता है कि आपका ख्याल गलत हो।"
काश! ऐसा हो सकता, लेकिन अपनी आंखों को कैसे झुटलाऊं, मैं ने इस दरिया के किनारे जिंदगी के चालीस बरस गुज़ारे हैं । इसकी लहरों के अंदाज़ मेरे देखे भाले हुए हैं मैं इस दरिया के रग-रग से वाकिफ हूं । इसकी हर करवट को जानता हूं ।
इस बात का मेरे पास कोई जवाब ना था। जब मैंने पुल के नीचे बहते हुए तेज़ बहाव को देखा तो एक अनजानी सी दहशत से मेरे कदम लड़खड़ाने लगे। अब्बा जान सिर झुकाए गहरी सोच में डूबे कदमों से चले जा रहे थे।
उनके साथ चलते हुए मैंने पूरे वातावरण में एक तरह का तनाव सा महसूस किया । जैसे उनके बूढ़े कमजोर जिस्म में दरिया के तूफान से भी बड़ा एक खामोश तूफान उठ रहा हो , जैसे उनकी की रूह की गहराइयों में एक जबरदस्त कशमकश सी जारी थी ।
मैंने गर्दन को झटका देकर इस वहम से पीछा छुड़ाना चाहा। लेकिन वह एहसास मेरे दिल व दिमाग पर हावी होता रहा।
"नहीं, यह हरगिज़ नहीं होगा कभी नहीं।" अब्बा जान आप ही आप बड़बडाने लगे थे। क्या हुआ अब्बाजान ? मैंने पूछा ।
"कुछ नहीं बेटा," और फिर हिम्मत से बोले, "जाओ बेटा अभी अभी इसी वक्त मौलवी एहसान उल्लाह के पास जाकर उनसे मेरा सलाम कहना और वह जिस भी हालत में हो उन्हें मेरे पास बुला कर लाओ, कहना अब्बा जान ने तुम्हें बुलाया है । बड़ा ही जरूरी काम है,"
यह कहकर अब्बा जान ने लालटेन उठाई और केबिन की तरफ चल दिए ।
मैं ने राइफल संभाली और सितारों की रोशनी में पथरीली ढलानों से लुढ़कता, लड़खड़ाता हुआ मौलवी साहब के घर पहुंचा। और अब्बा जान का संदेशा उन्हें सुनाया। सुनते ही उन्होंने हाथ में तस्बीह ली और मेरे साथ चले आए। रास्ते में हमारी कोई बात नहीं हुई।
पुल पार करके हम केबिन के दरवाजे पर पहुंचे ही थे कि मैं ठिठक कर रुक गया। अब्बा जान का सारा हुलिया ही बदला हुआ था। स्थानीय हिंदुओं की तरह धोती बांध रखी थी। माथे पर लंबा सा तिलक लगाए, हाथ में आटे के देवों की थाली लिए खड़े थे। अब्बा जान का यह रूप देखकर मैं नफरत से उन्हें देखने लगा।
मैंने मौलवी एहसान की तरफ देखा लेकिन वे खामोश खड़े थे । उन्हें चुपचाप देखकर मैंने भी अपनी ज ज़ुबान बंद कर ली। जब दोनों आगे बढ़े तो मुझसे रहा ना गया।
" यह सरासर कुफ्र है, अब्बा जान !" मैंने तेज़ आवाज़ में कहा,
मेरी बात को जैसे किसी ने सुना ही नहीं। अब्बा जान आटे के देवों की थाली हाथ में लिए मुस्कुराते हुए आगे बढ़ रहे थे। उनके पीछे पीछे मौलवी एहसानुल्लाह 'तस्बीह' फेरते हुए चल रहे थे।
मैं ने तिलमिलाकर मौलवी साहब से पूछा, मौलवी साहब! भला आप ही बताइए यह कुफ्र नहीं तो और क्या है ?
" है तो सही बेटे" मौलवी साहब ने फतवा दिया मगर…..
फिर अगर मगर कैसी ?
"कुफ्र तो हर हालत में कुफ्र होता है ।
" मैंने जोश में आकर कहा।
मौलवी साहब कुछ बोले नहीं चुपचाप अब्बा जान के पीछे हो लिए। उनकी खामोशी ने मेरे ज़हन को कुछ ऐसा झटका दिया कि मेरे हवास ही गुम हो गए। जाने कितनी देर में मैं वहां खड़ा रहा और फिर कीर्तन की आवाज़ ने मुझे बेदार किया ।
मैं राइफल उठाएं दरिया के किनारे की ओर लपका ।
वहां जाकर देखा, अब्बा जान देवों का दोना दरिया की लहरों पर बहा चुके थे । और तालियां बजा-बजाकर गा रहे थे।
मौलवी एहसानुल्लाह के होठों पर भी धीमें धीमें हरकत होने लगी और वे भी पतली,बेसुरी बलगम की आवाज़ में गाने लगे।
ओला लाला
ओला दरिया
ओ भाई दोला दरिया,
बेड़ा कंडा चला,
ओ भाई दोला दरिया
ओ दोला दरिया,
ओ भाई, दोला दरिया, दोला दरिया।
उसी आस्था, जोश और उत्साह का नूर जो कीर्तन के समय बूढ़े भक्तों के चेहरे पर झलकता था। मौलवी साहब के चेहरे पर भी वैसा ही नूर उभर रहा था।
अब्बा जान की सारी उदासी दूर हो गई थी। एक प्यार भरी नज़र से उन्होंने मुझे देखा वही निगाह जो बचपन में रूठ जाने पर वह मुझ पर डाला करते थे जाने क्यों राइफल पर से मेरी पकड़ ढीली हो हो गई। मैं भी उनके पास बैठ गया और तालियां बजा बजाकर गाने लगा।
ओला लाला,
ओला दरिया,
ओ भाई दोला दरिया,
बेड़ा कंडा चला, ओ भाई दोला दरिया।
ओ दोला दरिया,
ओ भाई दोला दरिया, दोला दरिया।
(हिन्दी रूपांतर : ख़ान मुख्तार , मुंबई)
9867210054.
20/8/2020